लिफ़ाफ़ा कल्चर
बी.ए द्वितीय वर्ष में अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त समाजशास्त्री और अर्थशाष्त्री श्री पूरणचंद्र जोशी जी का एक लेख ' नव धनाढ्य वर्ग या नए परजीवी ' पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था, आजकल कुछ ऐसा हो रहा है जो उसे प्रासंगिक बना रहा है और जिसे आजकल का नव धनाढ्य ,अर्थात वह वर्ग जिसका आर्थिक उदय नब्बे के दशक के बाद बड़ी तेज़ी से हुआ ,उसे बढ़ावा दे रहा है ।
एक इंसान से ज़्यादा और उसके समय से ज़्यादा बड़ी कोई चीज़ नहीं मानी जानी चाहिए,पर यह नया चलन इसके ठीक विपरीत है,आज इस वर्ग के पास अत्यधिक पैसा है जिससे वो बिना समझे,इंसानो के बीच के आत्मीय सम्बन्धो को तौल रहा है। ।
मैं अपने आप को थोड़ा सामाजिक समझता हूँ चूँकि मेरे बहुत से मित्र और जानकार हैं,जो सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व करते हैं ,पैसे वाले हों या नहीं,दिल के बड़े होने चाहिए ,और एक समाज का हिस्सा होने कारण अगर मैं कुछ गलत होते देखता हूँ तो यह मेरे फ़र्ज़ है कि मैं उसके प्रति समाज में जाग्रति लाउं.... !
' लिफ़ाफ़ा कल्चर' मेरे अनुसार इस ज़माने की उन कुरीतियों में से है,जो धीरे धीरे हमारे समाज के आत्मीय संबंधों को बिगाड़ रही है , बात सोचने में बहुत छोटी लगती है पर छोटी है नहीं ,आज जिस शादी में जाओ,पार्टी में जाओ,जन्मदिन हो,लड़की वालों की तरफ से न्योता हो, या बरात में जाने का,सबसे पहले लोग यह तय करते हैं कि लिफ़ाफ़ा कितने का देना है, और उससे भी पहले यह याद किया जाता है कि बुलाने वाले व्यक्ति ने हमारे कार्यक्रम में लिफ़ाफ़े में कितना माल दिया था !
हाल ही में मेरे एक परम मित्र के साथ एक शादी में जाना हुआ,न्योता लड़के वालो की तरफ से था, उन्होंने मुझसे पूछा की कितने का लिफाफा दे रहे हो, मैं थोड़ा अचंभित था , क्यूंकि मैं ग्रामीण पृष्ठभूमि से हूँ और हमारे यहाँ लड़की की तरफ से न्योता हो तो शादी में कन्यादान करना आवश्यक है,और वह भी इसलिए की समाज उस कन्या को अपनी पूर्ति के सामान मानकर पिता को विवाह के लिए किये गए खर्चे में अपनी इच्छा से योगदान देता है और माना जाता है की यह धर्म के अनुकूल भी है और सामाजिकता के भी !!!
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बहरहाल मैंने जब अपने इन मित्र को यह बात समझने की चेष्टा की तो इनका तपाक से जवाब आया कि बुलाने वाले ने मेरे यहाँ एक हज़ार का कन्यादान किया था इसलिए मुझे तो ग्यारह सौ करना ही पड़ेगा,तुम्हारी अपनी मर्ज़ी।
मैं अपना सा मुंह लेकर रह गया, आज पस्श्चमी सभ्यता का "गिफ्ट कल्चर' हमारे यहाँ 'लिफाफा कल्चर' बन गया है, अगर मेरे घर पर कोई मेरा मित्र , मेरी ख़ुशी में शामिल होने अपने जीवन का कीमती समय निकाल कर आया है तो मेरे लिए उससे बड़ी ख़ुशी की कोई बात नहीं होगी!इससे बड़ा गिफ्ट ,या इससे बड़ा लिफ़ाफ़ा कोई और नहीं हो सकता!
पर जहाँ तक रूपये वाले 'शगुन' की बात है,तो इस लिफ़ाफ़े के लेन देन ने लोगो में दूरियां बढ़ानी शुरू कर दी हैं ,एक इंसान दूसरे की ख़ुशी में जाने से कतराता है ,खर्च बहुत हो जाएगा ,एक पैसे से कमज़ोर मेरा मित्र अगर यह सोचकर मेरी शादी में न आ पाये के उसका लिफाफा औरों की जेब के हिसाब से हल्का होगा , तो इससे बड़ा दुःख मेरे लिए या इंसानियत के लिए कोई और नहीं होगा !
ऐसा नहीं है की मैं यह सिर्फ कहने के लिए कह रहा हूँ,मैंने महसूस किया है,देखा है,की एक मित्र मजबूरी में कोई बहाना बना रहा ताकि उसे या उसके मित्र को शर्मिंदा न होना पड़े, और यह बेहद दुखदाई बात है, अतः इस नयी पीढ़ी को चाहिए की उठे,खड़ी हो और इस कुरीति को मिटाये,मित्रता की प्रगाढ़ता को बढ़ने दे, अन्यथा, मित्रता और सामाजिकता इस बात पर आश्रित हो जाएगी की किसका लिफाफा कितना मोटा है और इस पहले से ही विभाजीत समाज को एक और कारण मिल जायेगा बंट जाने का !!!!!
रंजन तोमर
After a long time I found something very nice to read👍👌
ReplyDeletethanx a lott tejveer :)
ReplyDeletethanx a lott simi ,means a lott :)
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